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Showing posts from February, 2017

what we can...गरीब और भूख...

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भूख की सूची में दुनिया के 88 देशों में भारत का क्रमांक 66 आया है। इसका अर्थ है कि समृद्धि के बेहद ऊंचे कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद भारत में 30 करोड़ से अधिक गरीब जनसंख्या सर्बिया , लिथुआनिया , सूरीनाम और मंगोलिया के गरीबों की तुलना में भी ज्यादा दुर्दशा की शिकार है। भूख और गरीबी के सूचकांकों की श्रेणी में भारत पाकिस्तान से बदतर है और बांग्लादेश से ही बेहतर है इस सूची में क्रमांक का निर्धारण बाल कुपोषण , बाल मृत्यु दर , कैलोरी की कमी से ग्रस्त जनसंख्या , सामान्य भोजन मात्रा , स्वास्थ्य एवं आरोग्य सेवाएं , स्वच्छ जल की उपलब्धता , शौैचालय और सफाई , स्त्रियों की शिक्षा , सरकार का प्रभाव , सामाजिक एवं राजनीतिक शांति और संघर्ष तथा एड्स जैसे रोगों की उपस्थिति का स्तर मापकर किया जाता है। जिहादी आतंकी , वोट बैंक राजनीति और सामाजिक तनावों के नित्य नए जातिगत समीकरणों में उलझा भारत कभी तेंदुलकर के विश्व कीर्तिमान में राहत और आशा ढूंढ़ता है तो कभी उन भारतीय अरबपतियों के लंदन और न्यूयार्क तक फैले ऐश्वर्य और भोग के अपार विस्तार की कथाओं से खुद को दिलासा देना चाहता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं

बोली सही...भाषा नहीं...

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जहा सिर्फ बोलना हैं!वहा भाषा नहीं बोली का प्रयोग होता हैं!एक छोटा बच्चा,डॉ साल का बच्चा !सब कुछ बोलता हैं!समाज ता हैं!भविष्य,वर्तमान और भूतकाल के बारे में बोलता और समजता हैं!उस वख्त हम खुश होते हैं!मगर धीरे धीरे हम उसे इस प्रकार से भाषा सिखाते हैं की जिस की बजह से वो भाषा शिक्षा से दूर होते हैं! देखिये... सार्वजनिक शौचालयों के पीछे टाट के कपड़े बांध ' घर ' बना कर रहते लोग , सार्वजनिक कूड़ेदानों , होटलों के बाहर और रेलगाड़ियों से जूठन और खाद्यकण बटोरते बच्चे और स्त्रियां , रिक्शा-ठेला चलाकर भरी दुपहरी या घनघोर वर्षा में भी काम करते मजदूर। ये सब भारतीय ही तो हैं। कभी रांची या बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से पंजाब , हरियाणा , जम्मू जाने वाली रेलगाड़ियां देखी हैं आपने ? गठरियों में सामान बांधे ये लोग डिब्बों में ठूंसे हुए और छत पर चढ़े हुए बेहतर जीवन की आस में घर परिवार छोड़कर जाने पर क्यों विवश होते हैं ? ये अपमान , तिरस्कार , कम पगार और संवेदनहीन प्रशासन युक्त वातावरण में काम करने पर राजी हो जाते हैं। क्या इस बेबसी का कोई आकलन कर सकता है ? इन राज्यों में जब से मध्यमवर्ग समृद्ध ह

मेरी मातृभाषा

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एक प्रबंधन संस्थान में एक युवा प्रशिक्षणार्थी आत्महत्या कर लेता है। वह इसका कारण लिख कर छोड़ जाता है कि कमजोर अंग्रेजी के कारण उसे हास्यास्पद स्थितियों से गुजरना पड़ रहा था, जो असहनीय हो गया था। ऐसी ही एक अन्य घटना में विद्यार्थी इसी कारण से तीन महीने तक विद्यालय नहीं जाता है। घर पर सब अनभिज्ञ हैं और जानकारी तब होती है जब वह गायब हो जाता है। ऐसी खबरें अगले दिन सामान्यत: भुला दी जाती हैं। इस प्रकार का चिंतन-विश्लेषण कहीं पर भी सुनाई नहीं पड़ता है कि आज भी अंग्रेजी भाषा का दबाव किस कदर भारत की नई पीढ़ी को प्रताडि़त कर रहा है। सच तो यह है कि आजादी के बाद मातृभाषा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान का जो सपना देखा गया था अब वह सपना दस्तावेजों, कार्यक्रमों तथा संस्थाओं में दबकर रह गया है। कुछ दु:खांत घटनाएं संचार माध्यमों में जगह पा जाती हैं। समस्या का स्वरूप अनेक प्रकार से चिंताग्रस्त करने वाला है। देश में लाखों ऐसे स्कूल हैं जहां केवल एक मानदेय प्राप्त अध्यापक कक्षा एक से पांच तक के सारे विषय पढ़ाता है। क्या ये बच्चे कभी उनके साथ प्रतिस्पर्धा में बराबरी से खड़े हो पाएंगे जो देश

Music with game...game with music

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अरे ... संगीत के माध्यम से स्कुल में क्या क्या किया जा सकता हैं! ऐ सवाल तब आयता जब हम जॉय फूल लर्निग के लिए काम करते थे!कई सरे सुजाव आये!सभी ने उसके आधार पे चर्चा करते हुए अपने विचार रखे! अंतमे ऐ तय हुआ की प्रारंभिक और उच्चतर के सभी बच्चो के साथ जो काम किया जा सकता हैं उसे ही हम बढ़ावा देंगे!अब स्कुल के सभी बच्चे एक साथ क्या कर सकते हैं!वो हाला की प्रार्थना सभा में साथ होते हैं! प्रार्थना सभा को साथ हैं!तो चले कुछ ऐसा ही करते हैं!ऐसा मानते हुए एक स्क्रिप्ट लिखनेका आयोजन किया!गुजरात शैक्षणिक टेक्नोलोजी भवन,अमदावाद के सहयोग से एक कार्यक्रमका रेकोर्डिंग किया गया!शायद आज से आठ दस साल पहेले बनाया हुआ ऐ कार्यक्रम मेरे किसी साथीने मुझे भेजा!ऐसे भी पर्यावरण और ऐसे कई विषयो को देखते हुए ऐ पहला कार्यक्रम था!इस गेम के तिन पार्ट बनाये गए थे!उसमे से मेरे पास आज एक ही पार्ट हैं!आशा रखता हूँ आप उसे सुनेगे!देखेंगे और अपने संकुल में उसे अपनाएंगे! आप भी यहाँ  ताल से... क्लिक करें!आप भी उस गेम को देख और समाज सकते हैं!

मातृभाषा...

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प्राकृत-उद्गमित, सम्प्रेषणा-युक्त, जन-तन्द्रा-अन्तक, भावपूर्ण मातृभाषा है-हिंदी । “भारत दुर्दशा” जैसे निबंध लिखकर इस देश को जगाने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मातृभाषा का महत्व कुछ इस प्रकार से बताया है-निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल ।।अंग्रेजी पढिके जदपि, सब गुन होत प्रबीन ।पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।विविध कला, शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार ।सब देसन से लै करहु, निज भाषा माँहि प्रचार ।।हिंदी- वैसे तो यह इस देश की राजभाषा और हम सबकी मातृभाषा है परन्तु आज यह भाषा आज अपनी ही बुनियाद की रक्षा में लगी है।  ये वही भाषा है जिसने इस सोते हुए राष्ट्र को दासता की नींद से जगाया। इसी भाषा ने भारत को स्वतंत्रता का अर्थ समझाया। यही वह भाषा है जो ऐतिहासिक स्वातंत्र्य-संघर्ष की साक्षी बनी। महात्मा गाँधी के अविस्मरणीय विचारों की माध्यम बनकर इसी भाषा ने देश में परिवर्तन की नींव रखी। यही वो भाषा है जिसने विभिन्न जाति-धर्म-समुदायों में बिखरे इस देश में प्रथम बार राष्ट्रवाद की स्थापना की। शुक्ल, द्विवेदी और प्

Kids Home Work...

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सीआईएससीई (CISCE: Council for the Indian School Certificate Examinations) और सीबीएसई(CBSE:  Central Board of Secondary Education) के स्कूलों में बच्चों पर लादे गए पाठ्यक्रम एवं होमवर्क के दबाव ने उनका शारीरिक विकास रोक दिया है। बड़ा पाठ्यक्रम और स्कूलों में मिलने वाले रोज-रोज के होमवर्क ने बच्चों का बचपन छीन लिया है। बच्चे स्कूल से घर आने के बाद भी हर समय होमवर्क, प्रोजेक्ट सहित अन्य गतिविधियों जुटे रहते हैं। खेलकूद जैसी गतिविधियों में भागीदारी के अभाव में बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित हो रहा है। हालांकि इधर सीबीएसई ने भी बच्चों के होमवर्क तथा पाठ्यक्रम के बोझ को कम करने के लिए पहल की है। आइये देखें कि आरटीई (RTE : Right to Education), एनसीएफ (NCF) की गाइड लाइन क्या कहती है- आरटीई में होमवर्क नहीं देने की बात कही गई है एनसीएफ 2005 में रटंत पद्घति से दूर रहने की बात पाठ्क्रम ऐसा हो जो आसानी से याद हो जाए बच्चों को उनके स्तर के पाठ्यक्रम को ही पढ़ने को लागू किया जा सीबीएसई की ओर से होमवर्क पर मांगे गए सुझाव हर सप्ताह होमवर्क कितना दिया जाए? होमवर्क किस प्रकार से

Education first...

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आज के संदर्भ में देखें तो विगत 5-10  वर्षों में वैश्विक बाजार की ताकतों के हौसले सब हदों को तोड़ रहे हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार और समान स्कूल प्रणाली पर हो रहे हमलों को पहचानना और तदनुरूप उनका उपचार जरूरी हो गया है।  शिक्षा के अधिकार का आज का स्वरूप आने के पहले और बाद में  जो बहस चली है उसमें समान स्कूल प्रणाली और पड़ोसी स्कूल की अवधारणा को हाशिए पर धकेलने के लिए एक नया शगूफा छोड़ा गया या ये कहें कि टोटका आजमाया गया है। वह है "निजी स्कूलों में पड़ोस के कमजोर तबके के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का।" अक्सर समाचार की सुर्खियां इसी से प्रेरित हो लिख देती हैं कि - "अब पढ़ेंगे कृष्ण और सुदामा साथ - साथ"। लेकिन क्या वास्तव में यह इस हद तक संभव और आसान है?  इसी की पड़ताल करता यह आलेख।  अब यह  मुद्दा गौण हो गया कि यदि इस प्रावधान के अनुसार 25 प्रतिशत गरीब बच्चे पड़ोस से आएंगे तो जाहिर है कि 75 प्रतिशत फीस देने वाले संपन्न बच्चे पड़ोस से नहीं आएंगे, तो फिर यह बराबरी हुई अथवा खैरात?  इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि इस प्रावधान से कितने गरीब बच्चों को लाभ मिलने की उम्मीद हैं? जाहिर ह

मिड डे मिल्क...क्या...कैसे...

किसी राष्ट्र का स्वास्थ्य उसकी सम्पदा से ज्यादा महत्वपूर्ण है। सब को आधार मानकर ही शायद मिड-डे-मील योजना की शुरुवात की गई होगी । 1995 में मध्यान्ह भोजन योजना प्रारम्भ हुयी थी। तत्समय प्रत्येक छात्र को इस योजना के अंतर्गत हर माह तीन किलोग्राम गेहूं या चावल उपलब्ध कराया जाता था। केवल खाद्यान्न उपलब्ध कराये जाने से बच्चों का स्वास्थ्य एवं उनकी स्कूल में उपस्थिति पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा। तमिलनाडू में देश की सबसे पु रानी   मध्यान्ह   भोजन   योजना   संचालित   है।   वहां  पर बच्चों   को   मध्यान्ह   में   पका - पकाया   भोजन   उपलब्ध   कराया   जा   रहा है।   बच्चों   को   इस   योजनान्तर्गत   विद्यालयों   में   मध्यावकाश   में   स्वादिष्ट   एवं   रूचिकर   भोजन   प्रदान   किया   जाता   है।   इससे   न   केवल   छात्रों   के   स्वास्थ्य   में वृद्धि   होती   है   अपितु   वह   मन   लगाकर   शिक्षा   ग्रहण   भी   कर   पाते   हैं।   इससे   बीच   में   ही   विद्यालय   छोड़ने  ( ड्राप   आउट )  की   स्थिति   में   भी   सुधार   आया  है। भारत   सरकार   द्वारा   निर्देशित   किय

शिक्षा के लिए...

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संदर्भ में देखें तो विगत 5-10  वर्षों में वैश्विक बाजार की ताकतों के हौसले सब हदों को तोड़ रहे हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार और समान स्कूल प्रणाली पर हो रहे हमलों को पहचानना और तदनुरूप उनका उपचार जरूरी हो गया है।  शिक्षा के अधिकार का आज का स्वरूप आने के पहले और बाद में  जो बहस चली है उसमें समान स्कूल प्रणाली और पड़ोसी स्कूल की अवधारणा को हाशिए पर धकेलने के लिए एक नया शगूफा छोड़ा गया या ये कहें कि टोटका आजमाया गया है। वह है "निजी स्कूलों में पड़ोस के कमजोर तबके के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का।" अक्सर समाचार की सुर्खियां इसी से प्रेरित हो लिख देती हैं कि - "अब पढ़ेंगे कृष्ण और सुदामा साथ - साथ"। लेकिन क्या वास्तव में यह इस हद तक संभव और आसान है?  इसी की पड़ताल करता यह आलेख।  अब यह  मुद्दा गौण हो गया कि यदि इस प्रावधान के अनुसार 25 प्रतिशत गरीब बच्चे पड़ोस से आएंगे तो जाहिर है कि 75 प्रतिशत फीस देने वाले संपन्न बच्चे पड़ोस से नहीं आएंगे, तो फिर यह बराबरी हुई अथवा खैरात?  इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि इस प्रावधान से कितने गरीब बच्चों को लाभ मिलने की उम्मीद हैं? जाहिर है कि विध

भाषा शिक्षा क लिए...

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अगर हमे कोई पूछे के भाषा क्या है ? और उसका वैज्ञानिक अध्ययन क्यों जरूरी है!   ये आधारभूत एवं महत्त्वपूर्ण प्रश्न  विचारणीय हैं।जीवन और जगत से जुड़ी भाषा मानव जाति की अमूल्य सम्पदा है ,   उसका स्वायत्त अ è ययन हमें अपनी पहचान तो देता ही है ,   साथ ही विश्व में अपनी पहचान बनाने में सहायक और महत्वपूर्ण है। भाषा को जानना और समाज में उसवेफ सपफल प्रयोग की जानकारी वस्तुत: संप्रेषण ही दृषिटयों से जरूरी है। भाषा वेफ प्रति सजग चेतना और उसकी   समझ इसमें सहायक सिहोती हैं क्योंकि भाषा मानव समाज वेफ आंतरिक भेदों की अभिव्यकित का सशक्त और सक्षम माध्यम   है। यह भी स्मरणीय है कि अपने प्रयोग में जहाँ भाषा नर्इ सर्जनात्मक संभावनाओं से युक्त लचीली और नव्यता लिए हुए होती है ,   वहीं मानवीय विशेषता वेफ रूप में भाषा जाति-विशिष्ट और सर्जनात्मक-अनुकरण से युक्त भी होती है। हमारी चिंतन प्रक्रिया ,   भाव और विचाराभिव्यकित का साथ होने   होकर भाषा हमारे भाव जगत और बाहय-जगत वेफ बीच तादात्म्य स्थापित करती है। अपने प्रयोजन में बहुमुखी भाषा मन की सर्जनात्मक तथा व्यवहार की सामाजिक शकित वेफ साथ हमारे सामने आती है।

क्या खेले...कैसे खेले...

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हम जब छोटे थे तब ऐसा नहीं था!जब हम छोटे थे तब वैसा था!आज कल हमारे ज़माने जैसे लोग नहीं हैं!हम जब खेलते थे तब पुरे महोल्लेमे मालूम पड़ता था! इन बतोको आज के डोर में लिखते हैं! आज के बच्चे जब छोटे ही हैं तो.... ऐसा नहीं था! आज भी वैसा हैं! आज कल्भी लोग वैसे ही हैं! आज जब बच्चे टेलीविजन देखते हैं तो पूरा महोल्ला उसके बारेमें जनता हैं!आज बच्चे खेलते नहीं इस लिए टेलीविजन देखते हैं या टेलीविजन देखते हैं इस लिए नहीं खेलते हैं?ये एक चर्चा का विषय हैं!मगर में ऐ कहूँगा की ऐसे खेल खेलने तो सबको पसंद हैं!सवाल ये बनता हैं की कोई ऐसी गेम खेलने वालोको इकठ्ठा नहीं कर सकता!अगर उसे दुसरे तरीके से कहा जाएतो ऐ बात सही हैं की ऐसे गेम जो बच्चो की रूचि बाधा सके ऐसी गेम कोण जनता हैं!पहलेके समय में मनोरंजन के ऐसे साधन नहीं थे!आज अगर हम अच्छे गेम खिलने के बारेमे नहीं जानते तो बच्चे क्यों रूचि रखें? बस इसी बजहसे हमने एक काम शुरू किया हैं!आप कोईभी गेम खेलते हो!उसके बारेमे जानते हो तो हमें इसका विवरण भेजे!आप हमें मेल कर सकते हैं!आप हमें वोट्स एप भी कर सकते हैं!अच्छा ऐ रहेगा की आप हमें हस्त ल

क्षमता में विश्‍वास

प्राय: शिक्षक यह मानते हैं कि बच्‍चों का सीखना स्‍कूल में ही प्रारम्‍भ होता है। स्‍कूल में आने से पहले बच्‍चों को कुछ नहीं आता। प्रशिक्षण के दौरान शिक्षकों से हुई बातचीत में उनका कहना था कि शहरी बच्‍चे तो फिर भी कुछ पढ़ना-लिखना जानते हैं लेकिन गाँव के बच्‍चे , गरीब बच्‍चे जिनके माता-पिता अनपढ़ हैं वे तो कुछ भी नहीं जानते। उन्‍हें तो सब कुछ स्‍कूल में आकर ही सीखना होता है। असल में भाषा शिक्षण की कक्षाओं का उद्देश्‍य है कि बच्‍चे अपनी बात को कह सकें , दूसरे की बातों को सुनकर या पढ़कर अपनी टिप्‍पणी दे सकें। वे कहानियों और कविताओं को पढ़कर उसका रस ले सकें , उन कहानियों और कविताओं में अपनी छवि देख सकें या अपने आपसे जोड़ सकें। भाषा सिखाने के केन्‍द्र लिपि , वर्तनी , सुन्‍दर लिखाई व व्‍याकरण बन जाते हैं। इतना ही नहीं भाषा की कक्षा में भाषा से खेलने , उसमें डूबने , उसे अहसास करने और आत्‍मसात करने का अवसर ही नहीं रहता है। असल में बात यह है कि यह सब कुछ करने के लिए स्‍कूलों में इतना धैर्य कहाँ , वे तो जल्‍द से जल्‍द सिखाने में लगे रहते हैं। इसके अलावा शिक्षक का पूरा ध्‍यान कक्षा में

भाषा सिखाने का साधन पाठ्यपुस्‍तकनहीं है ...

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बच्‍चों को सिर्फ पाठ्यपुस्‍तक में दी गई विभिन्‍न रचनाओं को पढ़ना है और वह भी दिए गए क्रम में यानी पहले अध्‍याय एक की , फिर दो.. तीन। बच्‍चे अपनी इच्‍छा से चुनकर पाठ भी नहीं पढ़ सकते। पाठ पढ़ने के बाद होता है उसके पीछे दिए गए प्रश्‍नों के उत्‍तरों को याद करना। बच्‍चों के इर्द-गिर्द भाषाई सन्‍दर्भ उपलब्‍ध हैं। उदाहरण के तौर पर पत्रिकाओं , अखबारों , विज्ञापनों में , सड़कों पर लिखे गए विभिन्न निर्देश इत्‍यादि। इनमें कई जगहों पर भाषा का प्रयोग होता है लेकिन इन पर किसी का ध्‍यान नहीं जाता। इसके बाद आती है साहित्‍य की बात। भाषा के वृहद् साहित्‍य विशेषकर बच्‍चों की उम्र के लायक साहित्‍य से उनका कोई परिचय नहीं होता। कक्षा-कक्ष अवलोकन के दौरान एक अनुभव को यहाँ बाँटना चाहेंगे। हमने बच्‍चों से पूछा कहानी सुनोगे या कविता ? उन्‍होंने कोई जवाब नहीं दिया। अत: हमने एक कहानी सुना दी। दूसरे दिन फिर उसी कक्षा में जाने पर बच्‍चों ने कहा हमें कविता सुनाइए। कविता सुनाना शुरू किया तो उनका कहना था कल वाली सुनाइए। यह उदाहरण बताता है कि बच्‍चों को कहानियाँ और कविताएँ सुनने की बहुत इच्‍छा होती है। लेकिन क

नकल से सीखी जाती है भाषा...?

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शिक्षकों की एक और मान्‍यता है कि बच्‍चे भाषा तब सीखते हैं जब उन्‍हें वह भाषा सिखाई जाती है। ऐसी  कक्षा का एक उदाहरण देखिए:  कक्षा-एक में बच्‍चे बैठे हुए हैं। प्रथम कालाँश लगता है। शिक्षिका कक्षा में आती है व कुर्सी पर बैठ जाती है। थोड़ी देर बाद बच्‍चों से कहती है चलो अपनी-अपनी स्‍लेट या कॉपी लेकर मेरे पास आओ। हम हिन्‍दी पढ़ेंगे।  बच्‍चे एक-एक करके अपनी स्‍लेट या कॉपी लेकर उनके पास जाते हैं। वह बच्‍चे की स्‍लेट पर 3-4 कॉलम बनाती हैं व एक कोने में ‘ अ ’ लिखकर बच्‍चे से कहती हैं ऐसे ही और बनाओ। इसी तरह वह कक्षा के सभी बच्‍चों को एक-एक वर्ण लिखने को देती हैं , जब बच्‍चे दिए गए वर्ण को लिख लेते हैं तो वह दूसरा वर्ण लिखने को देती हैं। इसी तरह कक्षा में कार्य चलता रहता है। इस पूरे समय में एक बार कुछ ऐसा हुआ जो हटकर था। वह था बार-बार शिक्षिका द्वारा वर्ण लिखकर लाने को कहने पर एक बच्‍चे ने उनसे कहा मुझे नहीं लिखना है। कुछ और कराओ। लेकिन शिक्षिका के पास कुछ और कराने को नहीं था। अत: उन्‍होंने एक नया वर्ण फिर से बच्‍चे को लिखने के लिए दे दिया। अब इस बात पर गौर करें कि भाषा सीखने की प्रक्रिय

what भाषा or what बोली...

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एक और महत्‍वपूर्ण मसला है भाषा व बोली का। जिस भी मंच पर भाषा-शिक्षण की बात होती है , यह मसला जरूर उठता है। शिक्षक बच्‍चों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को दूसरे दर्जे की समझते हैं क्‍योंकि उनका मानना है कि भाषा तो वह होती है जिसका अपना साहित्‍य व व्‍याकरण होता है , उसकी लिपि होती है , वह मानकीकृत व शुद्ध होती है। बच्‍चे जो भाषा अपने घर से लेकर आते हैं वह तो भाषा नहीं है क्‍योंकि वह तो एक क्षेत्र विशेष के लोगों द्वारा बोली जाती है , उसका न तो साहित्‍य है न व्‍याकरण न लिपि। अत: स्‍कूल के पहले दिन से ही बच्‍चों को मानकीकृत और शुद्ध भाषा सिखाने का प्रयास किया जाता है। और यदि बच्‍चे अपनी घरेलू भाषा का प्रयोग विद्यालय में करते हैं तो उन्‍हें डाँट दिया जाता है। बच्‍चे यह समझ नहीं पाते कि उन्‍हें क्यों डाँटा जा रहा है ? घर में आसपास परिवेश में हर कहीं वही भाषा बोली जाती है पर स्‍कूल में अध्‍यापक के सामने जब वे बोलते हैं तो गलत क्‍यों हो जाते हैं। बात यहीं खत्‍म नहीं होती। जैसे कि हमने पहले भी बात की। भाषा व्‍यक्ति की संस्‍कृति व पहचान होती है। बच्‍चे द्वारा अपनी घरेलू भाषा का उपयोग न करने