भाषा सिखाने का साधन पाठ्यपुस्तकनहीं है ...
बच्चों को सिर्फ पाठ्यपुस्तक में दी गई
विभिन्न रचनाओं को पढ़ना है और वह भी दिए गए क्रम में यानी पहले अध्याय एक की, फिर दो.. तीन। बच्चे अपनी इच्छा से चुनकर
पाठ भी नहीं पढ़ सकते। पाठ पढ़ने के बाद होता है उसके पीछे दिए गए प्रश्नों के
उत्तरों को याद करना।
बच्चों के इर्द-गिर्द भाषाई सन्दर्भ उपलब्ध
हैं। उदाहरण के तौर पर पत्रिकाओं, अखबारों, विज्ञापनों में, सड़कों पर लिखे गए विभिन्न निर्देश इत्यादि।
इनमें कई जगहों पर भाषा का प्रयोग होता है लेकिन इन पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
इसके बाद आती है साहित्य की बात। भाषा के
वृहद् साहित्य विशेषकर बच्चों की उम्र के लायक साहित्य से उनका कोई परिचय नहीं
होता। कक्षा-कक्ष अवलोकन के दौरान एक अनुभव को यहाँ बाँटना चाहेंगे। हमने बच्चों
से पूछा कहानी सुनोगे या कविता? उन्होंने कोई
जवाब नहीं दिया। अत: हमने एक कहानी सुना दी। दूसरे दिन फिर उसी कक्षा में जाने पर
बच्चों ने कहा हमें कविता सुनाइए। कविता सुनाना शुरू किया तो उनका कहना था कल
वाली सुनाइए। यह उदाहरण बताता है कि बच्चों को कहानियाँ और कविताएँ सुनने की बहुत
इच्छा होती है। लेकिन क्योंकि हम साहित्य का कक्षा में अर्थपूर्ण उपयोग नहीं कर
पाते हैं, अत: उनकी रुचि खत्म हो जाती है। बच्चों को
विभिन्न कविताओं, कहानियों के
मुख्य बिन्दुओं को याद करने का कार्य अरुचिकर व बोरिंग होता है और विशेषतौर पर
तब जब यह उसके जैसा ही हो जो उनको पढ़ाया गया है। साहित्य के उद्देश्य जैसे कि
खुद को समझना और खुद का दुनिया के बारे में दृष्टिकोण बनाना और उसका संवर्धन करना
इत्यादि कहीं गुम हो जाते हैं।
कविता,कहानी की किताबें हो या अखबार अथवा सड़कों, विभिन्न स्थानों पर लिखे गए निर्देश इस तरह के सन्दर्भ न तो कक्षा में
उपलब्ध होते हैं ना ही उनके बारे में सोचा जाता है। पाठ्यपुस्तक में कुछ जरूर
मदद मिलती है लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएँ होती हैं। अत:शिक्षक को यह सोचना होगा कि
बच्चों में भाषा के प्रयोग की क्षमताएँ बढ़ाने के लिए उन्हें पाठ्यपुस्तक के
अतिरिक्त क्या-क्या करने की आवश्यकता है।
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