बोली सही...भाषा नहीं...

जहा सिर्फ बोलना हैं!वहा भाषा नहीं बोली का प्रयोग होता हैं!एक छोटा बच्चा,डॉ साल का बच्चा !सब कुछ बोलता हैं!समाज ता हैं!भविष्य,वर्तमान और भूतकाल के बारे में बोलता और समजता हैं!उस वख्त हम खुश होते हैं!मगर धीरे धीरे हम उसे इस प्रकार से भाषा सिखाते हैं की जिस की बजह से वो भाषा शिक्षा से दूर होते हैं!
देखिये...
सार्वजनिक शौचालयों के पीछे टाट के कपड़े बांध 'घर' बना कर रहते लोग, सार्वजनिक कूड़ेदानों, होटलों के बाहर और रेलगाड़ियों से जूठन और खाद्यकण बटोरते बच्चे और स्त्रियां, रिक्शा-ठेला चलाकर भरी दुपहरी या घनघोर वर्षा में भी काम करते मजदूर। ये सब भारतीय ही तो हैं। कभी रांची या बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से पंजाब, हरियाणा, जम्मू जाने वाली रेलगाड़ियां देखी हैं आपने? गठरियों में सामान बांधे ये लोग डिब्बों में ठूंसे हुए और छत पर चढ़े हुए बेहतर जीवन की आस में घर परिवार छोड़कर जाने पर क्यों विवश होते हैं? ये अपमान, तिरस्कार, कम पगार और संवेदनहीन प्रशासन युक्त वातावरण में काम करने पर राजी हो जाते हैं। क्या इस बेबसी का कोई आकलन कर सकता है? इन राज्यों में जब से मध्यमवर्ग समृद्ध हुआ है वहां के सामान्य व छोटे कहे जाने वाले कार्यों के लिए स्थानीय मजदूर नहीं मिलते।तभी जाके हम कही बाहर से मजदरी करने लोग लेट हैं!
ऐसे परिवार जो दूर दूर मजदूरी के लिए जाते हैं उनके संतान कई साडी भाषा ओ का एक्सपोजर रखते हैं!हम ऐ प्रयत्न करते हैं की भाषा शिक्षा के लिए अगर कुछ आवश्यक है तो वो हैं एक्सपोजर!कोई भी प्रान्त या प्रदेशा से आने वाले मजदूर अपने काम के लिए नई भाषा सिखाते हैं!अगर इतनी जल्दी ही व् भाषा शिख ते तो पधैमे अच्छे होते!ऐसा मानने से पहले में ये कहूँगा की मजदूरी करने वाला व्याकरण की परीक्षा नहीं देता हैं!उसे कोई व्याकरण के बारे में नहीं पुछता हैं!जहा व्याकरण हैं वहा भाषा हैं!

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