क्षमता में विश्‍वास


प्राय: शिक्षक यह मानते हैं कि बच्‍चों का सीखना स्‍कूल में ही प्रारम्‍भ होता है। स्‍कूल में आने से पहले बच्‍चों को कुछ नहीं आता। प्रशिक्षण के दौरान शिक्षकों से हुई बातचीत में उनका कहना था कि शहरी बच्‍चे तो फिर भी कुछ पढ़ना-लिखना जानते हैं लेकिन गाँव के बच्‍चे, गरीब बच्‍चे जिनके माता-पिता अनपढ़ हैं वे तो कुछ भी नहीं जानते। उन्‍हें तो सब कुछ स्‍कूल में आकर ही सीखना होता है।
असल में भाषा शिक्षण की कक्षाओं का उद्देश्‍य है कि बच्‍चे अपनी बात को कह सकें, दूसरे की बातों को सुनकर या पढ़कर अपनी टिप्‍पणी दे सकें। वे कहानियों और कविताओं को पढ़कर उसका रस ले सकें, उन कहानियों और कविताओं में अपनी छवि देख सकें या अपने आपसे जोड़ सकें। भाषा सिखाने के केन्‍द्र लिपि, वर्तनी, सुन्‍दर लिखाई व व्‍याकरण बन जाते हैं। इतना ही नहीं भाषा की कक्षा में भाषा से खेलने, उसमें डूबने, उसे अहसास करने और आत्‍मसात करने का अवसर ही नहीं रहता है। असल में बात यह है कि यह सब कुछ करने के लिए स्‍कूलों में इतना धैर्य कहाँ, वे तो जल्‍द से जल्‍द सिखाने में लगे रहते हैं।

इसके अलावा शिक्षक का पूरा ध्‍यान कक्षा में बच्‍चों को शान्‍त करने और उच्‍चारण ठीक करने में रहता है। कक्षा-कक्ष में बच्‍चों को बातचीत करने से रोका जाता है। जबकि बच्‍चों की बातचीत कक्षा-कक्ष या अध्‍ययन-अध्‍यापन के लिए एक संसाधन बन सकता है। शिक्षक को यह अहसास ही नहीं है कि अगर बच्‍चों को छोटी-छोटी टोलियों में बाँटकर उन्‍हें किसी विषय-वस्‍तु पर बातचीत का अवसर दिया जाए तो उससे काफी कुछ समस्‍या का समाधान ऐसे ही हो जाएगा। प्रत्‍येक बच्‍चा उसके परिवार में,उसके आसपास  बोली जाने वाली भाषा के नियम सीख लेता है। चाहे वो नियम ध्‍वनि के हों,शब्‍द स्‍तर के हों अथवा बातचीत के। बच्‍चा केवल ये ही नहीं जानता है कि सही शब्‍द व वाक्‍य कैसे बोलना है बल्कि उसको यह भी पता होता है कि यदि प्रश्‍न वाक्‍य बनाना है तो उसे कहाँ लय में परिवर्तन करना पड़ेगा। वह जानता है कि उसे अपने पापा से किस तरह से बातचीत करनी चाहिए। और यदि घर में अतिथि आएँ तो उनसे बातचीत का तरीका क्‍या होगा। इसके साथ-साथ बच्‍चे ये भी जानते हैं कि यदि उन्‍हें किसी से कुछ माँगना है तो उस व्‍यक्ति से किसी तरह की बातचीत की आवश्‍यकता है। बच्‍चों को यह सब कौन सिखाता है?

हमें लगता है कि भाषा की कक्षा में भाषा सिखाते समय दो-तीन बातों को अमल में लाएँ तो ज्‍यादा अच्‍छा होगा। पहली बात पढ़ने-लिखने की जो सामग्री हो वह सार्थक हो और बच्‍चे के स्‍तर की हो।दूसरी बात यह है कि जो सामग्री दी जाए वो परिचित भाषा में हो। तीसरी बात शिक्षक बच्‍चों के साथ सार्थक संवाद करें। उनकी बातों को प्‍यार से सुनें और उसे लोगों की बातचीत सुनने का मौका भी दें। ताकि वह अपने लिए कुछ व्‍याकरण के नियम और शब्‍द स्‍वयं से ढूँढ सके। आखिरी बात यह है कि भाषा को अक्षर,उच्‍चारण,व्‍याकरण आदि में बाँटने से कोई मतलब नहीं निकलता है। ना ही ये सब किसी निश्‍चित क्रम में सीखे जा सकते हैं। भाषा सीखने का एक ही तरीका है उसका ज्‍यादा से ज्‍यादा उपयोग किया जाए। जैसे-बोलने में, तर्क करने में, कल्‍पना करने में, सृजन करने में। पढ़ने-लिखने इत्‍या‍दि के पर्याप्‍त अवसर मिलें तो भाषा सीखना कोई मुश्किल काम नहीं है।

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