“छत्तीसगढ़ में आठवीं के बच्चे ऐसे क्यो?

इस दौर में हम ज्ञान द्वारा सत्य की सुंदरता और सहजीवन को सींचने के बदले आत्ममुग्धता में डूब रहे हैं। इन परिस्थितियों के लिए शिक्षा भी उत्तरदायी है। वह विकास की अनुगामी बन चुकी है। शिक्षा जिस विकास की अनुगामी है उसका अर्थ बढ़ोत्तरी है। इस बढ़ोत्तरी को धन या संपत्ति के रूप में संग्रहित कर सकते हैं। इसके आधार पर कम या ज़्यादा का निर्णय कर सकते हैं। ऐसे सामाजिक विभाजन कर सकते हैं जिसमें एक समूह के पास विकास का परिणाम होगा और दूसरे के पास इसका अभाव होगा। इस पृष्ठभूमि में स्थापित कर दिया गया है कि शिक्षा जैसे औजार इस विकास में सहयोग करेंगे।

भारतीय परंपरा में आर्थिक और सामाजिक पर्यावरणीय विकास एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम विचार और वस्तु में दोहन का संबंध देखने के बदले सृजन और सहअस्तित्व का रिश्ता बनाते हैं। ऐसी शिक्षा के लिए केवल औपचारिक प्रयासों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है। हमारे घर, समुदाय और सांस्कृतिक गतिविधियां भी शिक्षित करने का माध्यम हैं। हमें इन माध्यमों और अपनी भूमिकाओं पर विचार करने की ज़रूरत है।

हमें सोचना होगा कि खुद शिक्षित होने के बाद अपने बच्चों को शिक्षित करने के दौरान हम शिक्षा की प्रक्रियाओं से जुड़ने और उसमें योगदान करने का कितना प्रयास करते हैं।

हमें स्कूल जो बता देता है, उसे हम मान लेते हैं। हम मन लेते हैं कि स्कूल जो भी करता है हमारे बच्चों की भलाई के लिए करता है लेकिन इस ‘भलाई’ के कार्य में आपके योगदान का क्या? हमारी भूमिका ‘सामान’ खरीदने वाले ग्राहक की तरह होती जा रही है जो केवल सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करता है।

हिन्दुस्तान में स्कूलों को इस बात से कोई मतलब ही नहीं है कि बाहर उनके स्कूल के बच्चे क्या कर रहे हैं। यही हाल अभिभावकों का भी है, जिन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि स्कूल में उनके बच्चे क्या कर रहे हैं। अभिभावक और स्कूल के बीच संवाद बहुत कम होता जा रहा है।

विचार कीजिए कि आप पढ़ने-पढ़ाने के अलावा बच्चे के संसार के बारे में जानने की कितनी कोशिश करते हैं। हमारी दिनचर्या में बच्चों से बात करने का कितना हिस्सा है? कब हम उनके मीठे व कड़वे अनुभव से खुद को जोड़ते हैं? कब उनसे दुनियादारी की बातें करते हैं? कब स्कूल से हम उसकी गतिविधियों के बारे में सवाल करते हैं? स्कूल कब बच्चे के अनुभवों के बारे में अभिभावक को बताता है? कब अभिभावक और शिक्षक बैठकर बच्चे की कमज़ोरी और मज़बूती पर चर्चा करते हैं? इन सारे सवालों को हम केवल स्कूल के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं।

ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के दौर में ज्ञान केवल उत्पादन का साधन नहीं है, बल्कि उत्पादन के अन्य संसाधनों को डिक्टेट करने वाला निवेश है। अर्थ प्रधान दुनिया में शिक्षा एक वस्तु के समान बन चुकी है जो आर्थिक लाभों के उद्देश्य से उपयोग में लाई जा रही है।  हमारा ध्यान केवल उन्हीं दक्षताओं पर है जो उत्पादन व्यवस्था के लिए उपयोगी है। इसी व्यवस्था का प्रमाण है कि औपचारिक शिक्षा व्यवस्था हर क्षेत्र के लिए विशेषज्ञता का प्रमाणपत्र बांट रही है।

#Bno...

छत्तीसगढ़ से में अवगत हु।
2010 ओर 11 के बीच वहाँ काम किया हैं।
ये समस्या का समाधान भी वहां के एक अधिकारी ने किया था। उनके बारे में फिर कभी।

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