शरद का स्वागत



चारुचंद्र की चंचल किरणें,
खेल रहीं हैं जल थल में,


स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अम्बरतल में।

पुलक प्रकट करती है धरती,
हरित तृणों की नोकों से,

मानों झूम रहे हैं तरु भी,
मन्द पवन के झोंकों से।

सरकुम:
बोलने से बात शुरू होती हैं।
न बोलने से बात खत्म नहीं होती।
समय तो आता ओर जाता रहता हैं,
कभी यादे तो कभी अहसास से हाश होती हैं।

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