दो खिड़कियां
कुछ दिनों पहले की बात हैं।
किसी दोस्त ने एक पोस्टर भेजा।
खिड़की में से जो दिखाई देती हैं, वो हकीकत के सामने बच्चे को जो चाहिए वैसा उसने बनाया हैं।
प्रत्येक व्यक्ति की चाहत होती हैं,चाहत सहज हैं कि उसे शांति मील पाए,सहयोग मील सके। होता हैं ये की अपनी पसंद की खोड़की बनाने के बजाय हम जो दिखता हैं उसे स्वीकार कर लेते हैं। जो भी हैं,ठीक है। हमे हमारे इरादों को कमजोर नहीं करना हैं। अगर खिड़की में जो दिखता हैं उसे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं हैं तो अपनी सोच वाली खिड़की बनाने में कोई हर्ज नहीं हैं। सवाल ये होता हैं कि खिड़की को सी चुनते हैं।
क्या हुआ कुछ नहीं।
कैसे हुआ मालूम नहीं।
कैसे ये होगा, तय नहीं।
कुछ बुरा होना संभव नहीं।
जी पेश करने का तरीका गलत हैं।सवाल सही नहीं तो जवाब कैसे गलत नहीं आएगा। जो भी होता हैं पसंद या ना पसंद वाला उसमें 3 रीजन हैं...
1. फरज निभाने में...
2. जिम्मेदारी के कारण...
3. किसी के अनुचित उद्देश्य से...
इन तीन बजह से ये काम हमे करने पड़ते हैं। मगर फिरभी खिड़की तय करने का काम हमारा हैं।हम हमारी आँखे खोलकर ही खिड़की को पसंद करने हैं।
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बेशुमार होता हैं अकेले सोचने का दर्द,
जब सोचकर जब दर्द ही सामने आता हैं।
कैसे होगा जीवन में किसी सोच को पकड़ना,
यहाँ तो बात पकड़ने में महीनों गुजर जाते हैं।
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