दर्शनशास्त्र


दर्शनशास्त्र के अध्ययन, चिंतन तथा विश्लेषण (Analysis) की विषय वस्तु अत्यंत व्यापक होने के कारण, दर्शनशास्त्र का कोई सर्व स्वीकार्य परिभाषा निश्चित कर पाना अत्यंत कठिन  कार्य है। मूर्त (Abstract) तथा अमूर्त (Concrete)  विषयों के संबंध में मनुष्य की बुद्धि में उत्पन्न होने वाले विविध प्रश्नों तथा उनका युक्तियुक्त (Reasonable) समाधान या उत्तर प्राप्त करने का प्रयास दर्शन  कहा जा सकता है। इस तरह  से संपूर्ण ब्रम्हाण्ड ही दर्शन का विषय हो जाता है।

विवेकवान होने का मनुष्य का यह अदितीय गुण विश्व की प्रत्येक वस्तु  के स्वरूप को जानने के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है। वस्तु के स्वरूप को पूर्णंता के साथ व्याख्या कर पाने के लिए, भावना अथवा विश्वास के आधार पर नहीं बल्कि ज्ञान के आधार पर इसे प्रकट किया जाता है। दर्शन, ज्ञान  की युक्तियुक्तता की कसौटी  होती है।

दर्शन के अधीन समस्त ब्रम्हाण्ड, जीवन, आत्मा, व्यक्ति, वस्तु प्रत्येक की उत्पत्ति, अस्तित्व, प्रयोजन स्वरूप, लक्ष्य, सीमाओं आदि से  संबंधित  प्रश्न जो मनुष्य के मस्तिष्क में उठते हैं, उनका युक्तियुक्त समाधान/उत्तर  देने का प्रयास किया जाता है। कुछ सामान्य प्रश्न जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में उठते हैं यथा - ब्रम्हाण्ड का स्वरूप  कैसा है ? इसकी उत्पत्ति क्यों और किस प्रकार हुई ? क्या ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति का कोई प्रयोजन है ? क्या ब्रम्हाण्ड में ईश्वर का अस्तित्व है ? आत्मा क्या है ? ज्ञान क्या है ? सत्य क्या है ? नैतिक-अनैतिक क्या है ? इत्यादि अनेक प्रश्नों के संबंध में प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विचार उत्पन्न होते हैं, जिनके  आधार पर एक धारणा का निर्माण  होता हैं। इन धारणाओं  के युक्तियुक्तता ही दर्शन का निर्माण करती है।

हक्सले ने कहा है कि ‘‘हम सब का विभाजन दार्शनिक और अदार्शनिक के रूप में नहीं बल्कि कुशल और अकुशल दार्शनिक के रूप में ही संभव है‘‘।

Philos, Prefix- in the sense of lover और Sophia  Wisdom ओर ज्ञान इन दोनों ग्रीक शब्दों से Philosophy शब्द बना है, जिसका शब्दिक अर्थ ज्ञान का अनुरागी होता है।

फिलॉसफी में वस्तु के चरम स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

सामान्य रूप से किसी वस्तु, तथ्य, अथवा व्यक्ति से अनुभव, प्रयोग, और  जानकारी के द्वारा परिचित हो जाना ज्ञान कहलाता है। ज्ञान वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त बौद्धिक निष्कर्ष है। इन बौद्धिक निष्कर्षों से न्यायपूर्ण सत्य का निर्माण  होता है। ये न्यायपूर्णं सत्य ही दर्शन (फिलॉसफी) कहलाते हैं। फिलॉसफर शब्द का  प्रयोग पहली बार ग्रीक दार्शनिक पाइथागोरस ने  स्वयं के लिए किया था। 

 प्राचीन ग्रीक में दर्शन देवताओं के लिए  सुरक्षित विषय माना जाता था, तथा मनुष्यों को इस संबंध में विचार प्रस्तुत करना वर्जित था, तथापि प्लेटो, अरस्तु भी पाइथागोरस के  समान स्वयं को फिलॉसफर कहते थे। पाश्चात्य दर्शन में इसकी विषय वस्तु में व्यापक परिवर्तन तथा प्रसार हुआ है, तथा गूढ़ चिंतन की यह विद्या फिलॉसफी ही कहलाती है। भारत में गूढ़ चिंतन की यह विद्या दर्शन कहलाती है।

दर्शन शब्द की व्युत्पति संस्कृत की ‘दृश‘ धातु से हुआ है। शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर दर्शन का अर्थ है ‘‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्‘ अर्थात ‘‘जिसके द्वारा देखा जाये वह दर्शन है‘‘। ‘देखे जाने‘ से तात्पर्य बाह्य जगत की वस्तु  का भौतिक अवलोकन (Physical view) मात्र करना नहीं है, अपितु , वस्तु का तात्विक साक्षात्कार प्राप्त करना है।तात्विक साक्षात्कार में वस्तु से जुड़े समग्र सत्य से परिचय  प्राप्त किया जाता है, इसमें बौद्धिक युक्तियुक्तता के साथ साथ अनुभूतिजन्य सत्य  भी शामिल होता हैं।

सत्य से परिचय एवं साक्षात्कार के लिए तार्किक परीक्षण तथा अन्तर्ज्ञान  का भी प्रयोग होता है। भारतीय दर्शन में केन्द्रिक (Sensuous) तथा अनैन्द्रिक (Non- Senuous) दोनों  प्रकार की अनुभूतियों ओर सत्य से साक्षात्कार किया जाता है, परंतु अनैन्द्रिक अनुभूति जो अंतर्ज्ञान पर आधारित  तथा आध्यात्मिक है, अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है।


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अनूठा शास्त्र हैं जो भावी देख सकता हैं। और उस के आधार पर आगे बढ़ सकने के रास्ते इस शास्त्र से मिल सकते हैं।

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