मजबूरी में भी शिक्षक...

मुझे अब तक यह याद नहीं पड़ता कि कभी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों ने एक ही दिन एक ही विषय पर सार्वजनिक भाषण दिया हो।

लेकिन इस बार शिक्षक दिवस के मौके पर, इसके एक दिन पहले दोनों ने देश के बच्चों को संबोधित किया। क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि सरकार को अचानक शिक्षकों या शिक्षा का महत्व समझ में आ गया है और उनकी समस्याओं को लेकर वह बेहद सचेत हो गई है?


आज शिक्षकों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि बिना अधिकार के वह केवल कार्यपालिका के आदेशों का पालन करने वाले बने हुये हैं जहां उन्हें केवल आए हुये ऊपर के नियम कानून और फरमान  का पालन भर करना होता है। और सबसे बड़ा अजूबा यह कि हर नीति के फेल होने का भी वह एकमात्र उत्तरदायी भी। ऐसे नकारात्मक माहौल में आपको नौकरी करने वाले ही मिलेंगे, शिक्षक कतई नहीं। 

अफसोस कि न तो पीएम और न ही महामहिम की बातों से लगा कि सरकार के पास शिक्षकों को लेकर कोई ठोस योजना है। प्रेजिडेंट ने अपने बचपन के संस्मरण सुनाए और राजनीतिक इतिहास का पाठ पढ़ाया। प्रधानमंत्री ने कहा कि शिक्षक कुम्हार की तरह बच्चों का जीवन संवारता है, उनमें अच्छे संस्कार भरता है। शिक्षकों को महान बताने वाली ऐसी उक्तियां दुनिया भर में सदियों से कही-सुनी जाती रही हैं। भारत में इसके लिए एक दिन तय है, लिहाजा यहां रस्म अदायगी कुछ ज्यादा ही धूमधाम से की जाती है।



जबकि  सचाई यह है कि समय बीतने के साथ आज भारत में शिक्षक के पेशे की प्रतिष्ठा जड़ से खत्म हो चुकी है और इसका जनाजा निकालने में सरकारों की और सरकारी नीतियों की एक बड़ी भूमिका रही है। 

सरकारों  के नजरिए से शिक्षकों की योग्यता कोई मुद्दा नहीं है। उनका चयन और पदस्थापन केवल चुनावी एजेंडा से ज्यादा कुछ नहीं। 

आज कोई बच्चा मजबूरी में भी शिक्षक नहीं बनना चाहता है, आखिर यह स्थिति की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही सरकारें लेने को क्यों तैयार नहीं?


कई जगह आज ये सुनने को मिलता हैं की हम कुछ भी करेंगे!शिक्षक नहीं बनेगे!इस विचार के चलते आज कोई पाठ शालामे शिक्षक बन्ने को तैयार नहीं!हां...फिरभी शिक्षक बन्ने के लिए हजारो लाखो उम्मीदवार सरकारी नोकरी की उम्मीद में फॉर्म भरते हैं! क्यों सब सरकारी नोकरी के लिए शिक्षक बनाते हैं! वैसे तो दूसरी नोकरी में दैनिक अपडेट होता हैं! देखा जाए तो शिक्षामे भी अपडेट आवश्यक हैं! मगर वो सालाना करने की व्यवस्था के चलते कुछ सरकारी अब असरकारी नहीं रहा हैं!

सरकारी स्कुलो में कई नवाचार हो रहे हैं! मगर कोई आज ऐसा नहीं बोलते की में शिक्षक बनाना चाहता हूँ!ऐसा क्यों हो रहा है! हमें मालुम हैं फिरबी हम उसका सही सही जवाब नहीं दे सकते हैं! सरकारी स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर और कार्यपालन इतना खराब है कि किसी शिक्षक में पढ़ाई-लिखाई को लेकर कोई स्वत:स्फूर्त प्रेरणा हो तो वह भी दो-चार साल में जाती रहती है। दूसरी तरफ हर तरफ कुकुरमुत्तों की तरह खुल रहे प्राइवेट स्कूल बिना किसी नियम कानून के चलते हैं। बेरोजगारी के मारे हुए जो लोग इनमें टीचर बनने जाते हैं, उनसे प्राय: बेहद कम पैसे में काफी ज्यादा काम कराया जाता है। ऐेसे में उनसे कुछ बेहतर या क्रिएटिव करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

स्कूलों की बजाय अब प्रोफेशनल शिक्षक अब प्राइवेट ट्यूशन लेने या कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाने को ज्यादा तरजीह देने लगे हैं, क्योंकि वहां पैसे ज्यादा मिलते हैं। उच्च शिक्षा की स्थिति इससे कुछ अलग नहीं है। बड़े विश्वविद्यालयों को छोड़ दें, तो प्राय: सभी जगह कुलपति से लेकर शिक्षकों तक की नियुक्ति में कोई न कोई ‘जुगाड़ लिंक’ चलता है। सबसे बुरा हाल तकनीकी शिक्षण संस्थानों का है। प्रोफेशनल कॉलेजों में तो गिनती के प्रोफेसर गेस्ट का चोला ओढ़कर एक साथ कई संस्थानों में पढ़ा रहे हैं।

''कहने का आशय यह है कि सरकारें अगर शिक्षकों और शिक्षा को लेकर वास्तव में चिंतित है तो उसे शिक्षा का एक लंबा अजेंडा बनाकर काम करना ही होगा। नहीं तो शिक्षक दिवस आते रहेंगे, भाषण होते रहेंगे। ''

Comments

Popular posts from this blog

ગમતી નિશાળ:અનોખી શાળા.

ન્યાયાધીશ અને માસ્તર

અશ્વત્થામા અને સંજય જોષી