भाषा माने क्या?
भाषा शिक्षण पर
शिक्षकों का नजरिया
अक्सर शिक्षक चर्चा के दौरान बताते हैं कि
कक्षा पाँच के बच्चे भी कहानी या कविता सुनाना, अपनी बात को बोलकर या लिखकर अभिव्यक्त करना, समझ कर पढ़ना आदि काम नहीं कर पाते हैं।
ये सब बातें हमें सोचने को बाध्य करती हैं
कि भाषा की कक्षा में ऐसा क्या होता है कि हमारे अथक प्रयासों के बावजूद बच्चों
की विभिन्न भाषाई क्षमताएँ विकसित नहीं हो पातीं। सवाल यह है कि हम इसका कारण बच्चों की
सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि को मानें अथवा भाषा सीखने-सिखाने के तौर-तरीकों व
उसमें निहित हमारे नजरिए को। पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न मौकों यथा कक्षा अवलोकन व प्रशिक्षणों के दौरान
शिक्षकों के साथ हुई बातचीत में भाषा शिक्षण के प्रति उनके नजरिए के कई आयाम
उभरकर आए। उनमें से कुछ की चर्चा हमने यहाँ इस लेख में करने की कोशिश की है।
‘भाषा माने क्या’ का अर्थ बहुत सीमित अर्थों में लेते हैं। यह
पूछे जाने पर कि भाषा से आप क्या समझते हैं जवाब होता है - भाषा यानी विचारों के
आदान-प्रदान का माध्यम अर्थात् ‘सम्प्रेषण का साधन’। इस बात पर कभी गौर नहीं किया जाता कि जिन विचारों को सम्प्रेषित करना है वे
कहाँ से व कैसे आते हैं? दूसरे शब्दों में क्या भाषा के बगैर हम सोच सकते हैं? कल्पना कर सकते हैं? चीजों को अलग-अलग पहचान सकते हैं, उनका वर्गीकरण कर सकते हैं? विश्लेषण कर सकते हैं? हम भाषा का उपयोग कहाँ-कहाँ करते हैं? कैसे करते हैं? हमारा व भाषा का रिश्ता क्या है? यदि इन पहलुओं के बारे में गहराई से सोचा जाए
तो यह सूची और लम्बी होती जाएगी।
उदाहरण के लिए यदि किसी नए व्यक्ति से मिलते
हैं, उससे 4-5 मिनट बात करने के दौरान ही हमें पता चल जाता
है कि अमुक व्यक्ति पंजाबी है, बंगाली अथवा गुजराती....। यानी इंसान के व्यक्तित्व, उसकी पहचान, उसकी क्षमताओं का विकास इत्यादि सभी बातें
भाषा से जुड़ी हुई हैं।
इसका अर्थ यह है कि हममें से अधिकांश लोग जो
मानते हैं कि भाषा यानी ‘सम्प्रेषण का माध्यम', कुछ हद तक ही ठीक है। जाने माने शिक्षाविद् कृष्णकुमार ने अपनी पुस्तक ‘बच्चों की भाषा और अध्यापक’ में कहा है: ‘हममें से कई लोग भाषा को सम्प्रेषण का साधन
मानने के इतने ज्यादा आदी हो चुके हैं कि हम सोचने, महसूस करने और चीजों से जुड़ने के साधन के
रूप में भाषा की उपयोगिता को अक्सर भूल जाते हैं। भाषा के उपयोग का यह बड़ा दायरा
उन लोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है जो छोटे बच्चों के साथ काम करना चाहते हैं।
लेकिन भाषा का यह सीमित अर्थ भी कक्षा तक आते-आते कहीं गुम हो जाता है और उसे एक
ऐसे विषय के रूप में पढ़ाया जाता है जिसके द्वारा बच्चों को नैतिक मूल्यों की
शिक्षा दी जा सके।‘
सम्प्रेषण के अर्थ के हिसाब से देखें तो भी
कम से कम बच्चों को कक्षा में अपनी बात कहने, दूसरों की बात सुनने, प्रश्न उठाने, तर्क करने इत्यादि की स्वतन्त्रता होनी
चाहिए। पर कक्षाओं में तो यह नहीं होता। कक्षा में जो होता है वह है: अध्यापक जो
कहे उसको बिना विचारे सुनना, पाठ्यपुस्तक के अध्यायों के पीछे दिए गए अभ्यास के प्रश्नों के ‘सही’ उत्तर याद करके उनको हूबहू परीक्षा में वैसा
ही लिखना। इसके लिए तो पाठ्यपुस्तक की आवश्यकता ही नहीं होती। उत्तर याद करने के
लिए बच्चे कुँजियों का सहारा लेते हैं और इसी वजह से कुँजियों का बाजार चलता है। यह थी सम्प्रेषण की बात जो कि वास्तव में
होती ही नहीं। तो बाकी अन्य पहलुओं का क्या हो यह हमें सोचना होगा।
इसी से सम्बन्धित दूसरा बिन्दु है भाषा
सीखने-सिखाने के उद्देश्य व प्रक्रिया।
किसी भी विषय को सीखने-सिखाने के उद्देश्य
सीधे इस बात से जुड़ते हैं कि हमारी उस विषय की समझ क्या है? विषय की समझ न केवल यह निश्वित करने में मदद
करती है कि हमें पढ़ाना क्या है वरन् यह भी निर्णय लेने में मदद करती है कि
पढ़ाना कैसे है? चूँकि शिक्षकों की ‘भाषा क्या है?’ इस प्रश्न की समझ सीमित है, यही समझ भाषा शिक्षण के उद्देश्यों को निर्धारित करने में भी परिलक्षित होती
है। आमतौर पर यह माना जाता है कि भाषा
सीखने-सिखाने के उद्देश्य हैं:
·
ध्वनि रूपों के
शुद्ध उच्चारण को समझना।
·
शब्दों के
शुद्ध उच्चारण को समझना।
·
ध्वनि रूपों का
उच्चारण करना।
·
शब्दों का
शुद्ध उच्चारण करना।
·
वर्ण पढ़ने की
क्षमता विकसित करना।
·
शब्द पढ़ने की
क्षमता विकसित करना।
·
वर्णों और शब्दों
को उचित आकार, उचित क्रम में लिखने की क्षमता विकसित करना।
(सुन्दर लिखावट)
·
विराम चिह्नों
का प्रयोग करते हुए लिखने की क्षमता विकसित करना।
·
वाक्य पढ़ने की
क्षमता विकसित करना।
·
व्याकरण का
सटीक उपयोग।
·
और इनके साथ-साथ
नैतिक मूल्यों का विकास करना भी भाषा शिक्षण का एक मुख्य उद्देश्य होता है।
पाठ्यपुस्तक निर्माण और भाषा सीखने-सिखाने
के तौर-तरीके भी इन्हीं उद्देश्यों पर आधारित होते हैं। फलस्वरूप भाषा की कक्षा
सिर्फ वर्ण, शब्द, वाक्य बोलना, पढ़ना, लिखना सिखाने पर केन्द्रित होकर रह जाती है।
न तो उसमें कविताओं व कहानियों के लिए कोई स्थान होता है न बच्चों को बातचीत के
मौके होते हैं और न अपनी बात को अभिव्यक्त करने के। चाहे वह मन से लिखना हो अथवा
कहना।
भाषा तथा भाषा-शिक्षण के उद्देश्यों को लेकर
शिक्षकों के नजरिए की बात हमने की। इसके अलावा भी कई दृष्टिकोण हैं जो शिक्षकों से
बातचीत के दौरान परिलक्षित भी होते हैं, जैसे - भाषा टुकड़ों-टुकड़ों में व चरण दर चरण सीखी जाती है। शिक्षक भाषा को एक समग्र रूप में देखने की
बजाय टुकड़ों-टुकड़ों में देखते हैं। वे मानते हैं कि भाषा टुकड़ों-टुकड़ों को
जोड़कर सीखी जाती है। चाहे ये टुकड़े फिर सुनने, बोलने, पढ़ने, लिखने के हों अथवा अक्षर, मात्रा, शब्द व वाक्य। यदि हम फिर से उद्देश्यों
पर जाएँ और उनका गहराई से विश्लेषण करें तो उनमें भी यह विभाजन साफ-साफ दिखाई देता
है, जैसे....
·
पहले बच्चों को
ध्वनियों का उच्चारण समझना सिखाना है।
·
फिर साफ व स्पष्ट
बोलना
·
उसके बाद अक्षर
व वर्ण पढ़ना और उसके बाद लिखना।
शिक्षकों के अनुसार भाषा सिखाने का तात्पर्य
है; सुनना, बोलना, पढ़ने व लिखने का कौशल का विकास।
उनके अनुसार इन कौशलों के विकास की प्रक्रिया
कुछ ऐसी होती है: यद्यपि बच्चा अपने आसपास हो रही बातचीत को सुनता रहता है लेकिन
भाषा वह माँ से ही सीखता है। माँ बार-बार बच्चे को सुनाने के लिए बोलती है, जैसे - बोलो ‘माँ’, ‘माँ’ और बार-बार भी ध्वनि से परिचय होने के फलस्वरूप बच्चा ‘माँ’ शब्द सीख जाता है और ‘माँ’ बोलना शुरू करता है। इसी तरह उसको अन्य ध्वनियों
पापा, दादा इत्यादि से परिचय करवाया जाता है। और
फिर वह ये शब्द भी बोलने लगता है। ये शब्द छोटे व सरल होते हैं अत: बच्चा जल्दी
सीख जाता है। फिर बारी आती है लम्बे व कठिन शब्दों व वाक्यों की। माता-पिता व
रिश्तेदार बार-बार इन शब्दों को बच्चे के सामने दोहराते हैं। इसी तरह बच्चा
शब्द व वाक्य बोलना सीख जाता है।उनका यह दृढ़ विश्वास होता है कि बच्चा
बगैर सुने नए शब्द व वाक्य बोल ही नहीं सकता। यानी पहले सुनने की प्रक्रिया होगी
फिर बोलने की।
पढ़ने व लिखने की प्रक्रिया भी कुछ इस तरह ही
होती है। पढ़ने का मतलब होता है अक्षरों को पहचानना और ध्वनियों का उच्चारण कर
पाना। और इसीलिए बच्चे पढ़ने के नाम पर वर्णमाला को रटते रहते हैं, कविताओं व कहानियों को शब्दश: दोहराते रहते
हैं।
लिखना भी एक स्वतन्त्र कौशल की तरह मशीनी
ढंग से सिखाया जाता है। बच्चों को अक्षरों की नकल के लिए कहा जाता है। शब्दों की
नकल करवाई जाती है। सोचें, कि यदि हमें
किसी एक ही काम को बार-बार करने को दिया जाए तो कैसा महसूस करेंगे। लेकिन शुरुआती
एक साल में भाषा-शिक्षण के नाम पर बच्चे यही कवायद करते रहते हैं।
इन चारों कौशलों को अलग-अलग देखने की वजह से
ही शिक्षण प्रक्रिया बोझिल उबाऊ व बार-बार रटने वाली हो जाती है। जैसे यह सब
एक-दूसरे से अलग-अलग प्रक्रियाएँ हों। इसी तरह क्या अक्षर व शब्दों को
पढ़ना-सीखना लिखने की प्रक्रिया में कोई योगदान नहीं देता? इन प्रश्नों के बारे में कोई विचार नहीं
करता। यदि पढ़ना व लिखना बच्चों के अनुभव व बातचीत से शुरू होगा तो वह बच्चों के
लिए अर्थपूर्ण होगा।
शिक्षकों के अनुसार तो भाषा सीखने की
प्रक्रिया कुछ इस तरह होती है: माता-पिता बोलते हैं मामा, पापा अथवा कोई अन्य शब्द, तो पहले बच्चे कई बार इस शब्द को सुनते हैं
और फिर एक दिन बोलना शुरू करते हैं। इसी तरह वे एक-एक करके शब्द सीखते हैं और फिर
शब्दों को मिलाकर वाक्य। भाषा को टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ाने का एक उदाहरण
देखिए:
शिक्षक कक्षा में आए व बच्चों को डाँटकर चुप
कराया। शिक्षक ने बोर्ड पर वर्णमाला के कुछ अक्षर यह बताने के लिए लिखे कि अक्षर
से शब्द का निर्माण कैसे होता है और शब्द से वाक्य कैसे बनते हैं।
घ,र,च,ल,अ,ब,न,भ। घर,चल-घर चल
अ,म,न,घर,चल-चरण घर चल
उसके बाद शिक्षक ने बोर्ड पर लिखी वर्णमाला
के अक्षर व अक्षर से बने शब्द और शब्द से बने वाक्यों को बच्चों द्वारा
पढ़वाया। वह प्रत्येक बच्चे को बोर्ड पर बुलाते और बोर्ड पर लिखे हुए को पढ़वाते
और साथ में अन्य बच्चों से उन शब्दों को दोहराते। इस प्रकार पीरियड चलता रहता
है।पूरी प्रक्रिया अक्षरों व शब्दों की पहचान
पर ही केन्द्रित रहती है और इनकी पहचान पर इतना जोर होने से वाक्य का अर्थ ही गुम
हो जाता है।
उन बच्चों को जो कि अच्छी तरह से भाषा का
प्रयोग कर सकते हैं ‘आ’,’इ’ व अन्य भी मात्राओं वाले नए-नए वाक्य जानते हैं और बनाते भी हैं, उनको इस तरह तोड़-तोडकर भाषा सिखाना कहाँ तक
उचित है, और तो और इस नजरिए का सीधा सम्बन्ध विषयवस्तु
से भी होता है। पढ़ाने के लिए विषयवस्तु भी ऐसी ही चुननी होती है जो चरण दर चरण
ही आगे बढ़े। फलस्वरूप विषयवस्तु सिर्फ अक्षरों, शब्दों जैसे पहले कमल फिर कमला फिर कमली और वाक्य रतन घर चल, नल पर चल सरपट करके इर्दगिर्द सिमट कर रह जाती है।हुई है, जिसका न कोई अर्थ है न ही वह रुचिपूर्ण है
आवश्यक है फिर भी बच्चे पढ़ते रहते हैं।
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